Monday, February 19, 2018

LEFT VS RIGHT IN TRIPUPURA

बहुत दिनों के बाद ब्लाग पर हूं। वैसे तो उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में चुनावी फिजा जोरों पर हैलेकिन त्रिपुरा का चुनाव कासा अहम हो चला है । देश में पहली बार लेफ्ट और राइट आमने सामने है। जहां वाम मोर्चा लगातार २४ सालों से सत्ता पर काबिज है वहीं पहली बार भाजपा वाम मोर्चे को टक्कर देती दिख रही है । २०१३ में जब वहां गया था चुनाव कवर करने तो माहौल कुछ ज्यादा ही गर्म था लेफ्ट फ्रंट के खिलाफ । सन २०११ में बंगाल में परिवर्न की  हवा ने ३७ वर्षों के वाम शासन को ममता दीदी की पार्टी ने ध्वस्त कर दिया था । चूंकि बंगाल और ट्रिपुरा की राजनीति में बहुत सारी समानताओं हैं तो मुझे भी लगा कि अब यहां यानि त्रिपुरा में भी वाम शासन का अंत हो जाएगा । स्थानिय मीडिया से लेकर राजनीतिक विश्लेषक की भविष्वानियां अखबारों की सुर्खियों पे छाइ थी कि अब परिवर्न में ४ दिन शेष ३ दिन शेष २ दिन शेष । लेकिन जब परिणाम आया तो ६० सीटों में से वाम फ्रंट ने ५० सीटें जीतकर नया इतिहास रच दिया । यानि २००८ के मुकाबले ४ सीट ज्यादा । अंग्रेजी अखबार त्रिपुरा टाइम्स जो लगातार एंटी लेफ्ट खबरें लिख रहा था परिणाम के बाद उसका हेडलाइन था रेड रेड रेड । बंगाल और त्रिपुरा में फर्क ये था कि त्रिपुरा में स्टूडेंट विंग ..डीवाइएफआइ . वाम मोर्चे का सांस्कृतिक संगठन  बहुत मजबूत है जबकि बंगाल में वाम मोर्चे का पराभव का कारण इन संगठनों का कमजोर होना था । खैर ये तो बीती बात हो गइ । वर्तमान चुनाव की पृष्ठभूमि को थोडा खंगालना होगा । २०१३ के बाद तृममूल के तत्कालिन  त्रिपुरा प्रभारी मुकुल राय के सौजन्य से कांग्रेस के १० विधायक तृणमूल में शामिल हो गये और टीएमसी त्रिपुरा में मुख्य विपक्षी दल हो गया । कुछ दिनों के बाद जब मुकुल राय ने बीजेपी का दामन थामा तो वही विधायक पैसे के बल पे भाजपा में शामिल हो गये । अब बीजेपी बिना मैंडेट के त्रिपुरा में मुख्य विपक्षी दल हो गया । इस चुनाव में कांगेरेस का वोट वीजेपी में लगभग ट्रांसफर हो गया है । मुस्लिम भी हो सकता है कि १० प्रतिशत बीजेपी को वोट करेगा । अब सवाल ये है कि क्या बीजेपी लेफ्ट के वोट प्रतिशत में सेंध लगा पाएगी जिसकि प्रत्याशा नग्न्य है । प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा का पूरा अमला लगा रहा चुनावी प्रचार से लेकर धन बल के हथकंडों के साथ । पीएम ने जो आरोप लगाये मािक सरकार पर मािक सरकार ने पलट कर जबाब भी नही दिया । बीजेपी ना आरोप था कि त्रिपुरा में कर्मचारियों के लिये चौथा वेतन आयोग है और पूरे देश में सांतवां वेतन आयोग है । न्यूनतम मजदूरी का दर भी त्रिपुरा में कम है । लेफ्ट ने पलटवार करते हुये कहा कि बीजेपी शासित महाराष्ट्र , गुजरात और राजस्थान के मुकाबले त्रिपुरा के सरकारी कर्मचारियों को ज्यादा सहूलियतें हैं । अब मीडिया और सोशल मीडिया में वाम मोर्चे सरकार की पलटी की बात चल रही है । चलो पलटाई बीजेपी का नारा है तो लेफ्ट समर्थक कह रहे है कि चलो उल्टाइ यानि यथा स्थिती बरकरार रहेगा । इस चुनाव ने मुझे यह भी अहसास कराया कि कांग्रेस और भाजपा की कम से कम आर्थिक नीतियों में कोइ अंतर नही है । अगर कोइ आडियोलोजी कांग्रेस की होती तो वो रातोरात भाजपाइ नही हो जाते ।

Thursday, June 9, 2016

left-right




कांग्रेस के लाख दुर्दीन आ जायें। हेराफेरी और सीना जोरी से कांग्रेसी बाज नही आते । बात हम बंगाल चुनाव की कर रहे है । बंगाल में ममता बनर्जी की जोरदार वापसी हुइ। कांग्रेसी अपनी साख बचा पाये लेकिन लेफ्ट की लुटिया डूब गइ। बंगाल चुनाव कवर कर रहा था । गांवों में शहरों में जब घूमता था तो लोग कहते थे की ममता की सरकार बनेगी लेकिन उनकी सीटें घटेंगी । दस में से नौ लोगों का यही कहना था । एक चीज जो उलट लग रही थी कि कभी बंगाल के गांवों में लेफ्ट का दबदबा होता था लेकिन जब गांवों में हम घूम रहे थे तो मामला उल्टा चल रहा था । एक बडी बात जो हमने देखी खासकर जब कांग्रेसियों से पूछता था कि आपकी पार्टी का क्या हाल है तो कांग्रेसियों का जबाब था कि ८० प्लस लायेंगे । जब हम पूछते थे कि जहां जहां लेफ्ट लड रहा है वहां क्या कांग्रेसी भी मन के साथ उन्हें वोट कर रहे है ..उनका जबाब था कि वो सब तो ठिक है लेकिन जैसे ही इवीएम मशीन पर हसिया हथौडा देखते है तो लेफ्ट का वो वर्बर ३४ साल याद आ जाता है । आपको याद होगा कि लोकसभा चुनावों के पहले ममता ने कहा था कि जरुरत पडी तो टीएमसी और लेफ्ट साथ आ सकते है । यह ममता के आत्मविश्वास के डिगने का घोतक था । लेफ्ट के आत्मविश्वास को देखिये कि जिस नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के बारे में कहा करती थी कि कांग्रेस और भाजपा में कोइ फर्क नही है उसी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से बाज नही आइ। टीएसी भी यही चाहती थी कि विपक्ष में कांग्रेस आये और लेफ्ट को धाराशायी कर दो ऐसी  कमर टूटे कि आने वाले दिनों में खडी ही नही हो पाये । 

Thursday, June 27, 2013

लालू-नीतिश-पासवान पुराण ( भाग-१)


शाहनवाज हुसैन ने पटना में एक रैली को संबोधित करते हुये कहा कि नीतिश सत्ता से बाहर रह ही नही सकते । वो हवाला १९९५ का दे रहे थे जब समता पार्टी बिहार में लालू के मुकाबले बुरी तरीके से पीट गइ थी । चुनाव परिणामों के बाद नीतिश ने कहा था कि अब वो राजनीति छोडकर किताब लिखेंगे । फिर कुछ दिनों के बाद ये खबर आइ कि नीतिश बिहार में रहकर ही लालू सरकार के खिलाफ सडक पर संघर्ष करेंगे । बात आइ गइ हुइ बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन हुआ और केंद्र में एनडीए की सरकार बनी । नीतिश कुमार को चूंकि अटल बिहारी बाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था । उन्हें रेल मंत्री के पद से नवाजा गया । बिहार में रहकर संघर्ष करने की बात हवा में रह गइ। नीतिश और लालू के बीच आपसी बैमनस्य इतना था कि रेल डिब्बों मे दूधिया लोग जो लालू की जाति के है नीतिश के आदेश पर उन्हें आरपीएसएफ के द्वारा डंडो से पिटाइ की जाती थी । जातियता की अगर बात करें तो रेल के विभिन्न मलाइदार पदों पर नीतिश ने अपनी जाति के लोगों को चुन चुन कर बिठाया । हां नीतिश को इतना आभास था कि लालू को भविष्य में पछाडा जा सकता है । चूंकि लालू कहा करते थे कि वोट का पैमाना विकास नही है जातिगत समीकरण ही वोट का पैमाना है । इस नब्ज को पकडकर नीतिश ने बिहार में रेल के विकास पर बहुत काम किया । पहली बार जब लालू पशुपालन घोटाले में जेल गये तो बेउर जेल उनके समर्थ उन्हें दूल्हे की तरह बिठाकर जेल के दरवाजे पे ले गये । समर्थक नारे लगा रहे थे कि जेल का फाटक टूटेगा ..लालू यादव छूटेगा । राजनीति में परिवारवाद का मुखाफलत करने वाले लालू को अपनी पार्टी के किसी नेता पर विश्वास नही रहा। जब बातें हवा में चल रही थी कि लालू के जेल जाने के बाद सीएम का पद कौन संभालेगा ..इसपर टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर छपी कि रंजन प्रसाद यादव..जयप्रकाश नारायण यादव या आर के राणा में से किसी को लालू गद्दीशीन करेंगे । अगले दिन जनसत्ता में ये खबर छपी कि अंदरखाने में लालू ने बिहार की कमान अपनी पत्नी को सौंप दी है । इस खबर पर राजद और अन्य दलों के नेता खूब हंसे। अगले दिन विधायक दल की बैठक हुइ..किसी को इसका आभास नही था कि राबडी देवी को नेता चुन लिया जाएगा । हालांकि सब प्री प्लान था ..लालू के सबसे विश्वस्त श्याम रजक ने राबडी के नाम का प्रस्ताव किया ..भला किसमें दम था इसका विरोध करने का । राबडी मुख्यमंत्री बनी और लालू जेलयात्रा पर निकल गये । अब राबडी जो साहब के लिये खैनी मांग कर लाती थी सीएम क्वार्टर के आस पास के लोगों से सीधा बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गइ। अनपढ और सियासत की गलियों से अनजान राबडी के लिये ये एक डरावना मंजर था । साथ ही पार्टी के अंदर ही सीएम पद का ख्वाब देख रहे तमाम नेताओं के विद्रोह का डर । तब राबडी ने अपने दोनों प्यारे सालों के हाथ में बिहार की कमान अघोषित रुप से सौंप दी । एक राजनीतिक अपराधी था तो एक शुद्द गंवार अपराधी । साधु तो राजनीति सीख गये थे लेकिन सुभाष जिसे लगता था कि कमाने का तरीका ..रंगदारी ,,अपहरण और ट्रांसफर ..पोस्टिंग से ही हो सकता है । इतना इन दो सालों ने गदर मचाया कि बिहार की जनता की नजरों मे लालू जो हीरो हुा करते थे ..जीरो की तरफ बढने लगे । मुझे याद है कि सुभाष यादव का कार्यक्रम अगर बिहार के किसी कोने में आपको लेना है तो सुभाष की ये शर्त होती थी कि आने के बाद उन्हें सिक्कों से तौला जाये । ८५ किलों का सुभाष यादव को अगर सिक्कों से तौला गया तो आप उसका दाम निकाल लिजीये । हां एक बात होती थी कि जिस किसी छुटभइये ने युवा हर्दय सम्राट सुभाष यादव का कार्यक्रम ले लिया वह उस एरिया या जिले का डान हो गया । अब वो सारी वसूली अफसर से लेकर दूकानदारों तक की इकढ्ठा करता था और उसमें से अपना शेयर काटकर सुभाष बाबू को पहुंचाया करता था । जनता की नजरों में राजद की सरकार दिन ब दिन गिरती जा रही थी । इधर नीतिश एनडीए में रहकर बतौर रेलमंत्री जो काम कर रहे थे वो लोगों को दिखने लगा । बिहार की जनता को विकास का पहला टेस्ट नीतिश ने रेल में काम करके चखाया । इसके बाबजूद लालू इतने कमजोर नही हुये थे । फरवरी २००५ मे विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश मिला ..नीतिश सरकार बनाने की जुगत लगा रहे थे ..अगर वो जोड तोडकर सरकार उस समय बना लेते तो उनका भी हश्र मदु कोडा सरखा होता । लालू को ये कतइ बर्दाश्त नही था क्यूंकि लालू को उस समय भी यह लग रहा था कि बिहार उनके परिवार की जागिर है । केंद्र में यूपीए के साथ सांठ-गांठ करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लगवा दी । राष्ट्रपति शासन के दौरान बूटा सिंह और उनके दो पुत्रों बंटी और लवली ने मिलकर वही काम किया जो साधु और सुभाष राबडी के लिये किया करते थे ..और यही कारण रहा कि अक्तूबर के चुनाव में जनता ने नीतिश के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की मुहर लगाकर लालू और पासवान को बाहर का रास्ता दिखा दिया ।

 ( जारी है )

Saturday, February 16, 2013

लेफ्ट का आखिरी किला या सरवाइवर ?


त्रिपुरा में विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों का भाग्य इवीएम मशीन में स्टोर्ड हो चुका है । बंगाल और केरल जैसे लेफ्ट रुल्ड स्टेट को कवर करने के बाद त्रिपुरा के राजनीतिक तापमान और मुद्दों को नजदीक से देखने का मौका मिला । शायद उत्तर पूर्व के राज्यों में इतना सभ्य , सुसंस्कृत और सुंदरता को समेटे शायद ही कोइ दूसरा राज्य हो। ६० विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में वामफ्रंट ( सीपीएम, सीपीआइ, आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक ) और कांग्रेसनीत गठबंधन (कांग्रेस, एनपीटी, एनसीटी ) के बीच कडा मुकाबला है । मुद्दों की अगर बात की जाये तो लेफ्ट फ्रंट का दावा है कि उसने राज्य में अशांति और गुंडागर्दी को खत्म कर इस राज्य को ना सिर्फ शांति और अमन की पटरी पर लाया बल्कि विकास का लाभ समाज के निचले पायदान पर खडे लोगों तक पहुंचाया । पिछली बार ६० में से ४९ सीटें जीतनेवाली लेफ्ट फ्रंट का आदिवासी समाज के बीच भी गहरी पकड है । इसका सबूत है कि पिछले चुनाव में एसटी के लिये सुरक्षित २० सीटों में से १९ पर वाम फ्रंट ने अपना कब्जा जमाया था । इसके अलावा केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं को लागू करने में यह राज्य ना सिर्फ नार्थ-इस्ट राज्यों में नंबर वन है बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर भी ये राज्य टाप टेन पर है । हालांकि विपक्ष का मानना है परिवर्तन की हवा  का असर बंगाल के बाद यहां भी महसूस किया जा रहा है । कांग्रेस का कहना है कि राज्य में सिर्फ उसी का विकास हुआ जो सीपीएम के कैडर हैं । आम आदमी वहीं रहा जहां पिछले २० सालों से था । लेफ्ट की ओर से उनके केंद्रीय नेताओं ने राज्य में अपनी पार्टी के पक्ष में जोरदार प्रचार किया । वृंदा करात , सीताराम येचुरी मोहम्मद सलीम सहित मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने अपनी पार्टा के लिये खूब पसीना बहाया । वहीं कांग्रेस की ओर से केंद्रीय मंत्री दीपा दास मुंशी वित्त मंत्री चिदांबरम सहित कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी  अपनी ओर से खूब जोर लगाया । हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का प्रस्तावित दौरा रद्द होने के बाद राज्य कांग्रेस को फजीहत का सामना करना पडा । लेकिन बाद में राहुल गांधी ने ताबडतोड छः जनसभायें करके कांग्रेस के खेमें में उत्साह का संचार कर दिया । राजनीतिक पंडितों का कहना था कि अगर राहुल गांधी नही आते तो कांग्रेस का कबाडा निकल जाता । कांग्रेस के लिये सबसे परेशानी का सबब ये है कि १९८९ में उनकी सरकार यहां रही और राज्य में गुंडागर्दी और आतंक का बोलबाला रहा। इस दाग से कांग्रेसी अभी भी उबर नही पाये है और राज्य कांग्रेस ने सभाओं में कहा है कि अगर इस बार उनकी सरकार बनी तो उस गलती को दोहराया नही जाएगा । इसके अलावा लेफ्ट फ्रंट का एक और संगीन आरोप है कि कांग्रेस का गठबंधन उसी आएनपीटी से है जिसके सर्वेसर्वा बिजय रांकल कभी टीएनबी छापामार दस्ते के हेड हुआ करते थे । वहीं टीएनबी जिसने ८० और ९० के दशक में बंगाली समुदाय और आदिवासी समुदायों के बीच खून की होली खेली थी । हालांकि कांग्रेस का कहना है कि रांकल अब राजनीतिक पार्टी के हेड है और वर्तमान में विधायक भी है ।
राजनीतिक तापमान और भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है इसका फैसला आगामी २८ तारिख को हो जाएगा लेकिन एक बात तय है कि पिछले १९ बरसों से लगातार सत्ता पर काबिज लेफ्ट को गद्दी से उखाडना कांग्रेस के लिये उतना आसान नही होगा । वैसे आम हिंदुस्तान से कटे इस राज्य में आपको भी आना चाहिये । शांति और भयमुक्त वातावरण के साथ अनेकों ऐसे पर्यटक स्थल है जहां आप अपने आपको प्रकृति से काफी करीब पायेंगे ।

Saturday, June 2, 2012

ब्रह्श्वेर मुखिया की मौत के बाद



मैं उस समय जहानाबाद में बेहद सक्रिय था । खेल संघो का अद्यक्ष और महासचिव होने के अलावा सांस्कृतिक क्रिया कलापों से भी जुडा था । बात १९९५ की होगी सवेरे मुझे पता चला कि बाथे में  रणवीर सेना के द्वारा ५० से उपर लोगों का नरसंहार कर दिया गया है । इसके बाद शुरु हुा नरसंहारों का अनंत सिलसिला ..शंकर बिगहा ..नारायणपुर ...रामपुर चौरम ..कहीं छिटपुट तो कहीं दिल दहला देने वाला । रातों रात रणवीर सेना उच्च वर्ग के किसानों के लिये राबिनहुड बनकर उभरा । प्रतिशोध में पिपुल्स वार ग्रुप और एमसीसी जो आपस में लडते लडते थक चुके थे ..रमवीर सेना से मुकाबला करने के लिये दोनों एक मंच पर ए गये । जहाना बाद के तत्कालिन डीएम प्रत्य अमृत बडी शिद्दत से इन घटनाओं का मुकाबला हर एक फ्रंट से करने की कोशिश कर रहे थे । हालांकि वो क्रिकेट के शौकिन थे ..नारायणपुर नरसंहार के समय सवेरे वो क्रिकेट प्रैक्टिस कर रहे थे ..इधर पत्रकारों ने खबर निकाल दी ..कि रोम जल रहा है और नीरो वंशी बजा रहा है । उनका तबादला कर दिया गया । उनके जगह पर डीएम अरुणीश चावला आये ( वर्तमान में मोंटेक सिंह अहलूवालिया के पीएस ) । जहाना बाद और अरवल के गांवों में जातिय वैमनष्य की धधकती चिंगारी के बीच इस शक्श ने शानदार मिसाल कायम की । रात रात भर ये उग्रवाद प्रभावित गांवों में लोगों के साथ सोते थे और उन्हें समझाते थे कि हिंसा का रास्ता छोडकर आप लोग मुख्यधारा में लौटो । वैसे युवा जो राह भटक कर हिंसा के आगोश में जाकर बंदूक थाम लिये थे उन्हें सरकारी ऋण की व्यवस्था करायी और उद्योग धंधा लगाने के लिये प्रेरित किया । पूरे ग्रामीण समूह को हिंसा और अराजकता के खिलाफ चावला लोगों को सडकों पर उतारने में सफल हुये । १९९९ मार्च में रमवीर सेना के द्वारा ३४ उची जाति के भूमिहारों को बडी ही बेरहमी से मार डाला गया । कहा जाता है कि एक टीचर जो उस गांव में २ साल पहले आये था और बच्चों को फ्री में शिक्षा देने के नाम पर उसने नक्सलियों के ऐजेंट के रुप में गांव में काम किया । एक एक घर का हिसाब किताब उसने दो सालों में ले लिया । कहा जाता है कि नरसंहार के घटित होने के बाद फिर दुबारा उसे गांव में नही देखा गया । प्रतिशोध में रणवीर सेना ने जहाना बाद औरंगाबाद सीमा से सटे गांव मियांचक में नरसंहार को अंजाम दिया जिसमें दुधमुंहे बच्चे और गर्भवती महिलाओं तक को नही बक्शा गया ।अगर रणवीर सेना के नेताओं का भाजपा और जदयू से संबंध था तो उस समय राजद के साथ एमसीसी खडी थी । ११९९ के लोकसभा चुनाव में राजद के अपराधिक छविवाले उम्मीदवार और लालू प्रसाद के करीबी सुरेंद्र यादव की हार जद यू के अरुण कुमार के हाथों हो गइ। अरुनीश चावला का सिर्फ इतना दोष था कि उन्होने सुरेंद्र यादव की गुंडा गर्दी नही चलने दी । हार से खिझकर लालू ने अरुनीश चावला का जहानाबाद से तुरंत तबादला करा दिया । जहानाबाद और अरवल के आसपास जितने नरसंहार हुये दोनो पक्ष रमवीर सेना या नक्सलियों ने उन्हीं गांवों को टारगेट किया जो शांतिप्रिय और भोले भाले थे । अगर रणवीर सेना कोि घटना को अंजाम देती थी तो पुलीस को वैसे नाम एफआइआर में दर्ज कराये जाते थे जो भूमिहार तो थे लेकिन पढते थे इंजीनियरिग और मेडिकल कालेजों में ..या वैसे युवा जिन्हें इस नरसंहार की राजनीति डसे कोइ लेना देना नही था । दोनों तरफ से बरबादियों की अंतहीन कहानी है ।आज इन क्षेत्रों में शांति और अमन बहाल होने की तरफ बढ रही थी तो ब्रह्श्वेर मुखिया की हत्या मे नये सिरे से
पुराने घावों को हरा करने की कोशिशें जो की जा रही है वो रास्ता बरबादियों का होगा ना कि आबाद होने का ।

Sunday, November 7, 2010

ऐतेहासिक होगा बिहार के लोगों का फैसला


पहले राष्ट्रमंडल खेल फिर ओबामा की भारत यात्रा ..और फिर एशियन गेम्स की चकाचौंध । शायद बिहार का चुनावी संग्राम मीडिया की सुर्खियां बटोरने में थोडा पीछे सा रह गया है। विभिन्न चैनलो और दिल्ली के पत्रकारों ने नीतिश कुमार की पुनः ताजपोशी कर दी है । पिछले दो महीनें से बिहार में हूं । बहुत सारे जगहों पर घूमा । यहां ऐसी कोइ लहर नही जो दर्शाती हों कि अमुक पार्टी को पूर्ण जनादेश देने के लिये जनता बेताब है । अगर पिछले २००५ के विधानसभा चुनावों की बात की जाये तो लालू के खिलाफ एक लहर सी पूरे प्रांत में चल रही थी जिसकी आंधी में सब उड गये और राज्य में एनडीए की सरकार बनी । वैसी आंधी या तूफान यहां देखने को नही मिल रहा है । हां एक बात जरुर नीतिश के चेहरे पर देखने को मिल रही है । सत्ता में वपसी को लेकर वह आश्वस्त ही नही बल्कि ओवरकन्फिडेंट नजर आते है । शाइनींग इंडिया के बाद शाइनिंग बिहार वाली चमक एनडीए के नेता और उनके समर्थक जरुर महसूस कर रहे है । टिकटों को लेकर एनडीए और जद यू में खूब घमासान मचा ..आखिरकार बात बनी और अब तो मात्र दो चरणों के चुनाव बाकि रह गये है । समीक्षकों का मानना है कि बढा हुआ वोट प्रतिशत नीतिश के गठबंधन को तो १५० से १७० सीट तक दिला सकता है या तो यह गठबंधन ८० - ९० सीटों तक सिमट जायेगा । २४३ सीटों पर अकेले चुनावी अखाडे में कूदी कांग्रेस अपने सीटों में कोइ खास इजाफा करने तो नही जा रही लेकिन इस पार्टी ने राजद-लोजपा और भाजपा जद-यू गठबंधन को खासा परेशान किया है । हालांकि राजद गठबंधन को कम ...लेकिन जद-यू गठबंधन को इसका ज्यादा नुकसान उठाना पड सकता है । जिस किसी सीट पर कांग्रेस ने जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर दमदार प्रत्याशी उतारा है वहां राज्य की दोनो प्रमुख गठबंधन को नुकसान उठाना पड रहा है । पिछले कुछ चुनावों से राजद लोजपा गठबंधन में यादव जाति के लोगों को पासवान पर भरोसा नही था उसी तरह पासवान जाति को यादवों पर भरोसा नही था ..शायद यही कारण था कि हाजीपुर से पासवान को हार का मुंह देखना पडा था । इस बार स्थितियां बदली हुइ है । दोनो जातियां गोलबंद है अपने प्रत्याशियों की जीत के लिये । इसका फायदा इन दोनो दलों को मिल सकता है । लालू ने ७५ सीटें लोजपा को दी है ..लोजपा ने दिल खोलकर सवर्ण प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है । लालू की पार्टी से अपेक्षाकृत सवर्णों को कम सीट दी गयी है । लालू से सवर्ण जातियों को चीढ हो सकती है लेकिन शायद पासवान से नही । जैसे जैसे चुनाव अंतिम दौर में पहुंच रहा है ..अन्य मुद्दों पर जातिय फैक्टर ज्यादा हावि हो रहा है । जद-यू के अत्यंत पिछडी जातियों में सेंधमारी को लेकर विपक्षी राजद - लोजपा गठबंधन खासे परेशान है ..वहीं नीतिश कुमार सवर्णों में सबसे आक्रामक जाति की नाराजगी से परेशान दिख रहे है ।अलपसंख्यक वोटों में भी बिखराव दिख रहा है ..लेकिन इसका ज्यादा प्रतिशत लालू वाले गठबंधन की ओर जा सकता है ..जहां जहां कांग्रेस की ओर से दमदार प्रत्याशी है अलपसंख्यकों का झुकाव कांग्रेस की तरफ भी देखने को मिल रहा है । बटाइदारी कानून का मुद्दा हालांकि यहां नजर नही आ रहा लेकिन साइलेंट वोटरों की संख्या को देखते हुये इस मुद्दे का मुर्दा हो जाना कहना गलत होगा । नीतिश सरकार के द्वारा अमन चैन ..रोड के मामले में सुधार ..लडकियों को साइकिल वितरण जैसे विकास के मुद्दे लोगो को खूब भा रहे है ..लेकिन अफसरशाही के हिटलरी रवैये ..गरीबों को दी जाने वाली खाद्यान में घोटाले जैसे मुद्दे नीतिश सरकार के खिलाफ जा रहे है ।शायद यही वजह है कि नीतिश अपनी चुनावी सभाओं में कह रहे है कि सत्ता में वापसी पर भ्रष्ट अपसरों को जेल ही नही भेजेंगे बल्कि उनकी संपत्ती को जब्त कर उसमें स्कूल खोलेंगे । लालू अपनी सभाओं में उंची जातियों से खूब माफी मांग रहे है कह रहे है कि आज सारे सवर्ण जाति के लोग समझ रहे है कि लालू मुंह का फूहड है दिल से नही और नीतिश दिल के काले है । कांग्रेस और राहुल गांधी पर भी खासकर जद-यू की तरफ से खूब आक्रमण हो रहा है ..शरद यादव का बयान गंगा में फेंक देने वाला ..पर खूब हंगामा हुआ। कांग्रेस का मानना है कि जद-यू के वोट वैंक में सेंधमारी से एनडीए के लोग बौखला गये है ।विश्लेषकों का मानना है कि सन २००३ के राजस्थान विधान सभा चुनावों में अशोक गहलोत से राज्य की जनता को कोइ नाराजगी नही थी । सर्वेक्षणों में वेस्ट मुख्यमंत्री के तौर पर गहलोत सबसे आगे थे लेकिन जब चुनाव के परिणाम आये तो भाजपा ने कांग्रेस का सूपडा साफ कर दिया । गहलोत के खिलाफ नही बल्कि उनके मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ जबरदस्त ऐन्टीइंकंबेंसी मत पडे । कुछ क्षेत्रों में ऐसी स्थिति देखने को मिली लेकिन राजस्थान जैसे हालात यहां नजर नही आ रहे है । कुल मिलाकर यहां लडाइ दिलचस्प है और २४ तारिख को जब मतों की गिनती होगी तो बिहार के लोगों का जनादेश अपने आप में ऐतेहासिक माना जायेगा । लोगों ने विकास को ही तरजीह दी या जातिय समीकरण का ही ख्याल रखा यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण रहेगा ।

Saturday, August 14, 2010

पिपली लाइव का असली हीरो नत्था नही राकेश है ?


फिल्म रिलीज होने के पहले बहुत कुछ कयास लगाये जा रहे थे ..किसान कर्ज माफी.... ग्रामीण भारत की समस्या आदि आदि इस फिल्म का थीम है । सही मायनों में यह फिल्म मीडिया और खासकर खबरिया चैनलों को खबर लेती दिखती है । भाजपा नेता प्रमोद महाजन को गोली लगने के बाद चार दिन तक जिंदगी और मौत से वो जूझते रहे ..आखिरकार उनका दुखद अंत हुआ। लेकिन उन चार दिनों तक खबरिया चैनलों के रिपोर्टर ..खबरनवीस कम डाक्टर ज्यादा हो गये थे। स्टिक लेकर लीवर का नक्शा बनाकर वो बताते थे कि गोली गोल व्लाडर को छूती हुइ निकली है ..इसलिये संभावना है कि प्रमोद महाजन की जान आसानी से बच जाएगी ...कोइ कहता था कि नही मेडिकल साइंस के मुताबिक गोली लगने के बाद टेटनस का खतरा हो गया है ..इसलिये उनकी जिंदगी खतरे में है । कुछ ऐसा ही उदाहरण नत्था के साथ इस फिल्म में है । आत्म हत्या के डर से उसे एक दिन में २० २० बार शौचालय के लिये जाना पडता है । एक बार शौचालय करने के बाद अहले सुबह नत्था गायब हो जाता है । उसकी ट्टी पर कुमार दिपक नाम के रिपोर्टर का विश्लेषण शुर होता है ...नत्था गायब है ..लेकिन वहीं ये जगह है जहां नत्था ने अंतिम बार अपना मल त्याग किया है ...इसका पाखाना सफेद है ..इसलिये जाहिर है कि नत्था जिस मनोस्थिती से गुजर रहा है उस हालत में ऐसा ट्टी होना लाजिमी है ..यह मनोचिकित्सकों का भी मानना है । चैनलों में एक जीव है जिसका नाम ..स्ट्रिंगर होता है । कस्बे का संवाददाता होता है । राष्ट्रीय चैनलों में कस्बों की खबर गाहे बगाहे ही फलक पर आती हों लेकिन जब कोइ बडी घटना कस्बे के आस पास हो जायें तो वही स्ट्रिंगर चैनलों के लिये अति महत्वपूर्ण हो जाता है। जहानाबाद जेल ब्रेक के दौरान एक स्थानिय स्ट्रिंगर ने ही उस खबर को ब्रेक किया था ..चैनल की टीआरपी भी बढी ..हालांकि चैनल ने उस स्ट्रिंगर को प्रश्स्ती पत्र के साथ साथ सुपर स्ट्रिंगर बनाया और नकद भी दिया । खैर ऐसा सबके साथ नही होता है । कुछ ऐसा ही पिपली लाइव में राकेश नाम का किरदार है जो स्थानिय अखबार का संवाददाता है। नत्था की खबर उसी के अखबार में सबसे पहले छपी । बाद में यह बडी खबर बन गयी ..राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक हिल गयी । सारे चैनलों के बडे सूरमा पिपली पहुंच गये । एक बडे चैनल की बडी अंग्रेजीदा रिपोर्टर भी पहुंची ...राकेश उन्हें ऐसीस्ट कर रहा था । उन्हीं के साथ साथ घूमता था और उनके चैनल की टीआरपी बढाने में मदद कर रहा था । कुछ दिन साथ रहने के बाद राकेश ने मोहतरमा को अपना सीवी बढाया ...मोहतरमा ने उसे अपने पास रखने को कहा क्यूंकि उसकी नौकरी से कहीं ज्यादा नत्था की स्टोरी थी । उस गांव में एक और किसान कर्ज और भूख से मर जाता है लेकिन वो चैनलों के लिये खबर का हिस्सा नही बन पाता है ...राकेश और मोहतरमा में वैचारिक तकरार भी इसको लेकर होता है ,,लेकिन मोहतरमा भारी पडती है क्यूंकि वो बडे चैनल की बडी रिपोर्टर है । पीटूसी करने के पहले पिपली के धूल धूसरीत स्थान में फिल्ड रिपोर्टिंग करते वक्त वह अपना मेकअप करना नही भूलती । नत्था कहां है ..राकेश की खोजी पत्रकारिता रंग लायी और नत्था का उसने पता लगा लिया । मोहतरमा दौडती है साथ में और चैनलों के रिपोर्टर अपनी ओवी के साथ उधर लपकते है । इसी बीच एक विस्फोट मे राकेश की मौत हो जाती है ...नत्था गुडगांव निकल पडता है दाढी मुंडवाकर मजदूरी करने ...लेकिन खबर यही बनती है कि विस्फोट में नत्था ही मर गया । सारा मसाला खत्म चैनल वाले के लिये ...ओवी और चैनलों के काफिले दिल्ली कूच कर जाते है ..मोहतरमा सबसे अंत में निकलती है और अपने सहयोगियों से पूछती है ...राकेश कहां है ...वो फोन भी रिसीव नही कर रहा है। गाडी में बैठती है और वो भी वापस दिल्ली स्टूडियो कूच कर जाती है । दिल्ली के पत्रकारों को स्ट्रिंगर कहे जाने वाले ये जीव उनकी ओर आशा और विश्वास भरी नजरों से देखते है ..सोचते है हरि मिल गया ..अब भवसागर पार कर जायेंगे ......लेकिन काम निकलने के बाद यही दिल्ली वाले पत्रकार उस जीव का फोन भी नही रिसीव करते....हां उसके विजुवल्स पर नक्सल बगैरह की स्टोरी बना डालते है ....और दिल्ली की झाडियों के बीच भाव भंगिमाएं बनाकर एक पीटूसी पेल डालते है । ...चैनल पर चलता है ..गुमला के जंगलों से कुमार दीपक की ये एक्सक्लूसिव रिपोर्ट ..........