Thursday, February 7, 2008

खबरिया चैनल और हमारा समाज

समाचारों के लिये हमेशा से आम लोगों के बीच एक भूख रही है। आज से कुछ साल पहले तक किसि एक दूकान में लाला के यहां एक अखबार पहुंचता था. गांवों में लोग बडी ही बेसब्री से अखबार के आने का इन्तेज़ार करते थे। हालांकि लाला का समाचारों से कोइ सरोकार नही होता था , एक अदद अखबार
उसके लिये पी आर के समान था लोगों या युं कहे अपने ज्यादा से ज्यादा ग्राहाकों तक पहुंचने के लिये।
बुजुर्ग लोग पहले ही अखबार को तिलन्गी सरीखा बना लेते थे । एक तितली जिस तरिके से फूलों का रस निचोड निचोड कर पी जाती है ठिक उसी तरह गांव के वो पठनशील लोग अखबार की एक लाइन को चट कर जाते थे ।
जारी है । फिर चर्चा होती थी अरे इस बार तो पांडेजी की हवा निकल जायेगी , दिल्ली की खूब हवा खा ली । उतने में शर्मा जी बोलने लगते थे अरे कल ही दिल्ली से लौटा हूं , एम पी साहब के यहां ही ठहरा था , फ़्रिज़ का पानी वहां पी लिया था साला गला भारी हो गया है। लोगों के लिये फ़्रिज़ बहुत दूर की बात थी उन दिनों । कभी कभी राजनितिक चर्चा घमासान हो जाती थी , बडी मुश्किल से लाला उन्हें शान्त करता था । धीरे धीरे मिडिया ने पैर पसारे और दैनीक अखबारों ने अपनी जगह प्रत्येक घर में बनानी शुरू की। ९० के दशक के बाद न्युज चैनलों का दौर आया। शुरुआत में तो ये खबरों की बदौलत जनता में पहुंचने की कोशिसे करते रहे ॥ लेकिन टीआरपी के चक्कर में ऐसा लगता है कि न्युज़ कही गुम हो गया है और उसकी जगह ले ली है सांप बंदर और मदारी के खेल ने । राखी का चुम्मा मिक्का ने क्या ले लिया ऐसा लगा कि देश में आपतकाल की स्थिती पैदा हो गयी , चैनल वाले सुबह से शाम तक परेशान रहे कि भाइ देश पर आये इस संकट का निवारन नही हुआ तो देश की जनता का क्या होगा। मेरे कहने का मतलब ये नही है कि मैं कोइ नयी बातें आपके सामने रख रहा हूं ।, मेरी मां पढी लिखी नही है । रामायन और महाभारत देखा करती थी टीवी पर । मैं जब पिछली बार घर गया था तो मेरी मां कहने लगी कि बेटा तुम यही काम दिल्ली में करते हो , बडी शरम आती है , उ राखी हमको मिल जाये तो ससुरी का नाक तोड दे हम। कहने का अर्थ ये है कि हम बाज़ार वाद के गिरफ़्त में है तो क्या जो समाचार पत्र या समाचारों की एक बेसीक परिधी है उसे लांघ जाये , तो फिर जनतंत्र के चौथे खंबे कहे जाने का हक हमें नही मिलना चाहिये.
..........