Tuesday, July 7, 2009

कुत्ता साधु को देखकर क्यूं भौंकता है ?


बिहार के छपरा , सिवान और पूर्वांचल के इलाके में शादियों में होने वाले नाच का कोइ तोड नही था । गाने बजाने के साथ लौंडा का नाच बहुत प्रसिद्ध था । उसमें कलाकारों के द्वारा नाटक का मंचन किया जाता था जो सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत होते थे । यूं कहे तो भिखारी ठाकुर के द्वारा जो नींव डाली गयी थी उन्हीं परंपराओं का निर्वहन उस स्थान के कलाकार करते रहे । हालांकि आज उस नाटक शैली की जगह फूहड औरकेष्ट्रा ने ले ली है । बचपन में उसी नाच का एक छोटा सा नाटक हमने देखा था जो आज तक याद है । नाटक था तीन सवाल ? पहला ..कुत्ता साधु को देखकर क्यूं भौंकता है ? कुत्ता सडक के बीचो-बीच क्यूं बैठता है ? कुत्ता उंची जगह को देखकर ही लघुशंका क्यूं करता है । कुत्ता साधु को देखते ही भौंकने लगता है कि महाराज आपकी जगह यहां नही है आप का तो काम तपस्या करना है ..इश्वर की सेवा करना है ..आप को तो जंगल में होना चाहिये फिर आप दुनियादारी की भीड में क्या कर रहे है।कुत्ता धरती को अपनी माता मानता है फिर भला उसी माता के शरीर पर पेशाब कैसे करें ।कुत्ता सडक के बीचों बीच इसिलिये बैठता है कि इसी मार्ग से संत , साधु , महात्मा के चरण धूल पडे है उन्ही को पूजता है ..कुत्ता चाहता है कि इस जन्म से मुक्ति पाकर इश्वर कहीं उन्हीं महात्माओं के चरणों की धूल में सेवा करने का अवसर दे दें।