Friday, December 28, 2007

सात रुपये में south

सोंच रहे होंगे कि इस आर्टिकल का टाइटल रेहडी वाले उस दूकान्दार की आवाज़ की तरह है जो अपने माल को बेचने के लिये ग्राहकों से इसतरह की जुमलेबाजी किया करता है. लेकिन जिस अध्याय को मैं आपके बीच रख रहा हूं , उसे मैं प्रकाशित करना चाहता था , लेकिन भला मेरे जैसे दो कौडी के पत्रकार को भला कौन गंभीरता से लेता. अब सोच रहा हूं कि इस ब्लाग लेखन में भला कौन सा पैसा लग रहा है .
दरअसल बचपन से पढाइ लिखाइ में ठीक ठाक था. स्कूली जीवन में ही मेरे दो चार ऐसे प्रिय दोस्त हो गये जो पैसे बाले थे . मेरे पिताजी बिहार सरकार में आफ़ीसर तो थे लेकिन एक तो घोर कमुनिष्ट उपर से इमानदारी का भी नशा.
छ: भाइ बहन थे इसलिये आभाव तो परिवार में हमेशा बना रहा. खैर मैं बात कर रहा था अपने अमीर मित्रों की.कभी कभार स्कूल के दिनों में घर में कोइ मेहमान आ गया तो पांच दस रुपये दे गया बस मत पूछिये दो चार दिन तो बल्ले बल्ले हो जाती थी. लेकिन मेरे उन अमीर मित्रों के लिये ५ या १० रुपये कोइ खास मायने नहीं रखते थे. आज भी बो मेरे बचपन के दोस्त मेरे साथ उसी तरह करीब है . लेकिन रोज़ी रोटी के चक्कर में हम सब जुदा जुदा है.
१२ वीं के बाद एक दोस्त पैसे वाल था डोनेशन के बल पर बैंगलोर चला गया इंजीनीयरींग पढने , उसने कहा तुम भी चल मेरे साथ महज ७० हज़ार ही तो लग रहे रहें हैं. मैं अपने पिताजी के पास गया और कहा कि ७० हजार दे दिजिये मैं बैंगलोर जाउंगा इंजीनीयरींग की पढाई करने. पैसे कहां थे उनके पास उन्होने इनकार कर दिया. दोस्त तो चला गया लेकिन बहुत याद आता था , जब जब वो छुट्टीयों में घर आये तो कहे कि चल बैंगलोर. एक बार अपने पिताजी को राजी कर लिया कि वहां जाकर दो महीने का कम्प्युटर का कोर्स करना चाहता हूं बहां मेरे दोस्त ने एडमिशन करा दिया है रेहने खाने की भी समस्या नही है. किसी तरह मैने अपने पिताजी को राजी कर लिया.
खैर पिताजी राज़ी हो गये । चल पडा बनग्लोर । वहां पहुंचा , अक्सर मेरा दोस्त कालेज चला जाता और मैं इधर उधर घूमा करता ।वहां पढनेवाले अधिकांशत: लडके बिहार के थे । किसी के बाप ने अपना खेत बेचकर बेटे के लिये लिये डोनेशन फ़ी का इन्तेजाम किया था तो कुछ ने महाजन से कर्ज़ लेकर
बेटे को इन्जीनियर बनाने के लिये यहां भेजा था। महीने की पांचवी तारीख तक अमुमन सबके पैसे घर से आ जाते थे । मेरे अपने दोस्त के अलावे अब तक कई और दोस्त बन गये थे। आलोक भाई चलो आपको ऐश कराते है। विनय भाई, गुलीन सर , गोपाल ये कुछ ऐसे महान लोग थे जिनकी दिल्चस्पी पढाई के अलावा और कई महत्वपुर्ण कार्यो से भी थी । उसमें गुलीन सर तो लगभग १० सालों से अपनी पढाई पूरी नही कर पाये थे। हमें इन लोगों ने पहले एक महंगे रेस्टारेन्ट में खाना और बीयर पिलाया। हम लोग अब रूख कर चुके थे रेस्कोर्से की तरफ़ । यहां की तो दुनिया ही निराली थी । घोडे और घुडसावारों के अलावा बडे बडे लोग जो दांव लगाने के लिये यहां आये थे सब के सब सिरीयस।
१० घुडसवार एक साथ दौडे , असलम कादर अपने घोडे चेतक पर उसी तरह पेसी स्राफ़ और भी कइ।
ज्यादा दांव तो असलम कादर पर था , अरे यह क्या ? घोषणा हुई कि पेसी स्राफ़ जीत गया। मेरे सारे दोस्तों ने असलम कादर पर दांव लगाया था। सब निराश हो गये । मैंने कहा कि भाई मेरे हिसाब से तो असलम कादर ही जीता है। हालांकि मामला नज़दीकी था। मैने भी एक टिकट असलम कादर के नाम लिया था। सब अपना टिकट फ़ाडने लगे। मैने कहा रूक जाइये मैं चैलेंज करूंगा। मैंने चैलेंज कर दिया , फोटो फ़िनीश हुआ । असलम कादर जीत गया । दरअसल जो पूर्व विजेता था उसके घोडे की टांग ने टच लाइन को पहले क्रास किया था , असलम कादर के घोडे के मुंह ने पहले टच लाइन क्रास किया , इसलिये नियमत: असलम कादर को विजेता घोषित कर दिया गया। अब तो मेरा भांव बढ गया , अब तो धीरे धीरे मैं बुकी हो गया। रेस्कोर्स , घोडा , और घुड्सवारों से संबंधित साहित्य का अध्यन करने लगा। कौन से घोडे पे किस घुडसवार ने कहां कहां बाज़ी मारी पूरे रिकार्ड का पुलिंदा अब मेरे पास था । सबेरे मैं आँखे मलता ही रह्ता था कि धमक पडते थे गुलीन सर साथ में उनकी फ़ौज़।
आब मैं रेस्कोर्स साइंस का बहुत बडा जानकार हो चुका था। पूरा दिन रेस्कोर्स में ही कटने लगा ।शाम में पार्टी और देर रात को घर आना । मेरा दोस्त बहुत दिन से मेरी दिनचर्या देख रहा था, उसने एक दिन कहा कि आलोक तुम गलत रास्ते पे गलत लोगों के साथ जा रहे हो , अपनी आदतों से बाज़ आओ वरना मैं तुम्हारे पिताजी से कह दूंगा। मुझ पर असर कहां पडने वाला था , चस्का लग चुका था।
आखिर एक दिन मेरे दोस्त ने मेरे पिताजी से मेरी शिकायत कर दी। मुझें तुरंत लौट जाने का आदेश मिला। बहुत भारी मन से मुझें वापस लौटना पडा । अपने उन घोडे वाले दोस्तों को छोडने का गम आज भी है।
( जारी है )

मैं कवि बन गया

बात सन १९९० की है , मैं बारह्बीं क्लास में पढता था . एक बार मेरे कस्बे में एक बडा मुशायरा होने वाला था. मैं लिखता रह्ता था लेकीन मंचिय कवि का दर्जा नही प्राप्त कर पाया था. मैने आनन फ़ानन में एक कविता लिखी और आयोजक के पास गया , आयोजक शहर का एक धनाढ्य व्यक्ति था. उसने मेरी
कविता को देखा और बोला कि पागल यही कविता है ? कविता का मतलब फ़ूल पौधा , पहाड , जंगल होता है , उसने मेरी कविता को फ़ेंक दी. मैने हार नही मानी , मुशायरा शुरु हो चुका था , मैं भी कवियों की तरह शाल ओढ्कर , मुंह छुपाकर मंच पर बैठ गया . मैने सोंचा कि मेरी बारी कैसे आयेगी , मैने दूसरे आदमी से एक पुर्जे पर अपना नाम लिखा आलोक मसौढ्वीं , साहिर लुध्यान्वी , औए काका हाथरसी की तरह , पुर्जा मंच के सदर के पास पहुंच गया. सदर मेरे पिता थे. खैर उन्हें पता नही चला कि उन्का ही बेटा आलोक मसौढ्वीं है . मेरी बारी आ गयी , मैने सोचा कि मत चूको चौहान . फिर मैने शुरु की अपनी कविता और पिताजी के डर से एक सांस में ही पूरी कवीता पढ गया . अरे यह क्या ? लोग तालियां बजा रहे थे और बे बोले वंस मोर , जिसने मेरी कविता को रिजेक्ट कर दिया था वो कह रहा था वाह यह लडका तो शुरु से ही प्रतिभाशाली था.
आप ये मत सोचीये कि मैं अपने मुंह मियां मिठु बन रहा हुं . सन ९० में अमेरिका ने इराक पर हमला बोला था , और हमारी सरकार देश कि हर समस्या को खाडी युद्ध से जोडकर देख रही थी . बहुत ज्यादा आपका दिमाग खा गया पेश है आपके सामने वही कविता.

तुम देश में जमाखोरों को प्रश्र्य देते हो
और फ़िर खाडी संकट का रोना रोते हो ?
एक कहावत थी कि तेल नही तेल की धार देखो
लेकीन अब न तेल मिलेगी और ना ही उसकी धार
बच जायेगी बस लुटेरों की बंदरबांट.
मंत्री जी की कार डकार रही है पेट्रोल के उन्माद से
मगर गांव की बुधीया जला रही है लौ अपने आंसुओं के उफ़ान से.
बुधीया कह्ती है कि खाडी का और मेरे गांब का संकट एक है.
क्यूंकि वहां कुवैत सद्दामो के द्वारा और यहां गांब पंचायतों के द्वारा लूटे जाते है.
मैंने कहा जब कुवैत को बचाने बुश आ सकते है तो गांब को बचानेवाला कोइ नही ?
उसने कहा यहां बुश का नही बल्कि घूस का राज है .
मैं अचंभित रह गया उसके जबाब से और सोंचा इस देश को भगवान भी नही बचा सकता अप्ने पुन्य प्रताप से .
( समाप्त)
कवि बननेलायक कविता थी या नही आप बताइयेगा . शुक्रिया

Tuesday, December 25, 2007

क्या होगा इन्डिया का कन्गारुओं के देश में

क्रिकेट फ़ीवर एक बार फ़िर दिवानों के रग रग में बस गया है. ट्वेन्टी ट्वेन्टी में अप्रत्यषित सफ़लता के बाद टीम इन्डीया उत्साह से लबरेज है.मुझे याद है कि सन १९८० का वो दौरा जब भारत ने एक मैच हारकर लीली और पास्को के तूफ़ान को किस तरह धाराशायी कर दिया था . एडीलेड टेस्ट में तो सन्दीप पाटील और यश्पाल शर्मा की जोडी ने तो मानो कन्गारुओं के आक्रमण की धज्जियां उदा दी थी. पाटील के १७४ रनों को आज भी कंगारु भुलाये नही भुलते. टेस्ट ड्रां हो गया. और अगले टेस्ट मेल्बोर्न मे़ कंगारुओ की पारी को ८५ रनों पर समेट कर भारत ने समेत कर ऐतेहासिक जीत दर्ज की थी. सीरीज बराबरी पर समाप्त हो गया. कुछ वैसा ही पिछ्ले दौरे मे हुआ . सेहवाग , गांगुली , सचिन , कुम्ब्ले , आदि के बेह्तरीन प्रदर्शन के बदौलत भारत ने एक बार फिर सिरिज बराबर करने में सफ़लता पाइ. इस बार फिर सारे क्रिकेट जगत की निगाह मौजुदा सीरिज पर लगी है . अगर भारत ने कंगारुओं पर अपनी बादशाहत कायम कर ली तो कंगारुओं की राजशाही पर बिश्व क्रिकेट जगत में संशय अवश्य हो जायेगा. भारत को हर हाल में आक्रामक होना पडेगा चाहे बल्लेबाजी की बात हो या गेंदबाजी की या फ़िल्डिन्ग की .