सोंच रहे होंगे कि इस आर्टिकल का टाइटल रेहडी वाले उस दूकान्दार की आवाज़ की तरह है जो अपने माल को बेचने के लिये ग्राहकों से इसतरह की जुमलेबाजी किया करता है. लेकिन जिस अध्याय को मैं आपके बीच रख रहा हूं , उसे मैं प्रकाशित करना चाहता था , लेकिन भला मेरे जैसे दो कौडी के पत्रकार को भला कौन गंभीरता से लेता. अब सोच रहा हूं कि इस ब्लाग लेखन में भला कौन सा पैसा लग रहा है .
दरअसल बचपन से पढाइ लिखाइ में ठीक ठाक था. स्कूली जीवन में ही मेरे दो चार ऐसे प्रिय दोस्त हो गये जो पैसे बाले थे . मेरे पिताजी बिहार सरकार में आफ़ीसर तो थे लेकिन एक तो घोर कमुनिष्ट उपर से इमानदारी का भी नशा.
छ: भाइ बहन थे इसलिये आभाव तो परिवार में हमेशा बना रहा. खैर मैं बात कर रहा था अपने अमीर मित्रों की.कभी कभार स्कूल के दिनों में घर में कोइ मेहमान आ गया तो पांच दस रुपये दे गया बस मत पूछिये दो चार दिन तो बल्ले बल्ले हो जाती थी. लेकिन मेरे उन अमीर मित्रों के लिये ५ या १० रुपये कोइ खास मायने नहीं रखते थे. आज भी बो मेरे बचपन के दोस्त मेरे साथ उसी तरह करीब है . लेकिन रोज़ी रोटी के चक्कर में हम सब जुदा जुदा है.
१२ वीं के बाद एक दोस्त पैसे वाल था डोनेशन के बल पर बैंगलोर चला गया इंजीनीयरींग पढने , उसने कहा तुम भी चल मेरे साथ महज ७० हज़ार ही तो लग रहे रहें हैं. मैं अपने पिताजी के पास गया और कहा कि ७० हजार दे दिजिये मैं बैंगलोर जाउंगा इंजीनीयरींग की पढाई करने. पैसे कहां थे उनके पास उन्होने इनकार कर दिया. दोस्त तो चला गया लेकिन बहुत याद आता था , जब जब वो छुट्टीयों में घर आये तो कहे कि चल बैंगलोर. एक बार अपने पिताजी को राजी कर लिया कि वहां जाकर दो महीने का कम्प्युटर का कोर्स करना चाहता हूं बहां मेरे दोस्त ने एडमिशन करा दिया है रेहने खाने की भी समस्या नही है. किसी तरह मैने अपने पिताजी को राजी कर लिया.
खैर पिताजी राज़ी हो गये । चल पडा बनग्लोर । वहां पहुंचा , अक्सर मेरा दोस्त कालेज चला जाता और मैं इधर उधर घूमा करता ।वहां पढनेवाले अधिकांशत: लडके बिहार के थे । किसी के बाप ने अपना खेत बेचकर बेटे के लिये लिये डोनेशन फ़ी का इन्तेजाम किया था तो कुछ ने महाजन से कर्ज़ लेकर
बेटे को इन्जीनियर बनाने के लिये यहां भेजा था। महीने की पांचवी तारीख तक अमुमन सबके पैसे घर से आ जाते थे । मेरे अपने दोस्त के अलावे अब तक कई और दोस्त बन गये थे। आलोक भाई चलो आपको ऐश कराते है। विनय भाई, गुलीन सर , गोपाल ये कुछ ऐसे महान लोग थे जिनकी दिल्चस्पी पढाई के अलावा और कई महत्वपुर्ण कार्यो से भी थी । उसमें गुलीन सर तो लगभग १० सालों से अपनी पढाई पूरी नही कर पाये थे। हमें इन लोगों ने पहले एक महंगे रेस्टारेन्ट में खाना और बीयर पिलाया। हम लोग अब रूख कर चुके थे रेस्कोर्से की तरफ़ । यहां की तो दुनिया ही निराली थी । घोडे और घुडसावारों के अलावा बडे बडे लोग जो दांव लगाने के लिये यहां आये थे सब के सब सिरीयस।
१० घुडसवार एक साथ दौडे , असलम कादर अपने घोडे चेतक पर उसी तरह पेसी स्राफ़ और भी कइ।
ज्यादा दांव तो असलम कादर पर था , अरे यह क्या ? घोषणा हुई कि पेसी स्राफ़ जीत गया। मेरे सारे दोस्तों ने असलम कादर पर दांव लगाया था। सब निराश हो गये । मैंने कहा कि भाई मेरे हिसाब से तो असलम कादर ही जीता है। हालांकि मामला नज़दीकी था। मैने भी एक टिकट असलम कादर के नाम लिया था। सब अपना टिकट फ़ाडने लगे। मैने कहा रूक जाइये मैं चैलेंज करूंगा। मैंने चैलेंज कर दिया , फोटो फ़िनीश हुआ । असलम कादर जीत गया । दरअसल जो पूर्व विजेता था उसके घोडे की टांग ने टच लाइन को पहले क्रास किया था , असलम कादर के घोडे के मुंह ने पहले टच लाइन क्रास किया , इसलिये नियमत: असलम कादर को विजेता घोषित कर दिया गया। अब तो मेरा भांव बढ गया , अब तो धीरे धीरे मैं बुकी हो गया। रेस्कोर्स , घोडा , और घुड्सवारों से संबंधित साहित्य का अध्यन करने लगा। कौन से घोडे पे किस घुडसवार ने कहां कहां बाज़ी मारी पूरे रिकार्ड का पुलिंदा अब मेरे पास था । सबेरे मैं आँखे मलता ही रह्ता था कि धमक पडते थे गुलीन सर साथ में उनकी फ़ौज़।
आब मैं रेस्कोर्स साइंस का बहुत बडा जानकार हो चुका था। पूरा दिन रेस्कोर्स में ही कटने लगा ।शाम में पार्टी और देर रात को घर आना । मेरा दोस्त बहुत दिन से मेरी दिनचर्या देख रहा था, उसने एक दिन कहा कि आलोक तुम गलत रास्ते पे गलत लोगों के साथ जा रहे हो , अपनी आदतों से बाज़ आओ वरना मैं तुम्हारे पिताजी से कह दूंगा। मुझ पर असर कहां पडने वाला था , चस्का लग चुका था।
आखिर एक दिन मेरे दोस्त ने मेरे पिताजी से मेरी शिकायत कर दी। मुझें तुरंत लौट जाने का आदेश मिला। बहुत भारी मन से मुझें वापस लौटना पडा । अपने उन घोडे वाले दोस्तों को छोडने का गम आज भी है।
( जारी है )
Friday, December 28, 2007
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