तारीख ६ दिसंबर सन १९९२ , धीरे धीरे मैं अपने कस्बे और ज़िले में कवि और रंगकर्मी बन गया था. इस काली तारीख से काफ़ी दिन पेहले से ही हमलोग सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ़ हल्ला बोल रहे थे. बाबरी मस्ज़िद और मंदिर की आड मे़ लोग आम आदमी के खून मे़ ज़हर घोलना चाह रहे थे . हमलोगो की नुक्कड टीम सबसे सस्ता गोश्त , और असगर बज़ाहत के लिखित नाटकों का प्रदर्शन करके जनता को आगाह कर रही थी , लेकिन ना बाबरी मस्ज़िद बची और ना ही उसके बाद निर्दोषों की जान . बस मेरे कलम ने जन्म दिया मेरी ब्यथा को इस साधारन से गज़ल के रूप में , जो आपके सामने पेश है.
सौ घर जला कर एक बनाया आशियां
हम जल रहें है उनके घर शहनाइयां , सौ घर जला कर .......
सो गया है ये शहर किस निंद में...
है ये कैसी भागती परछाइयां... हम जल रहें है...
आदमी अब आदमीयत छोडकर ..
कत्ल कर के ले रहा अंगडाइया....हम जल रहें है...
रौशनी की आस भी धुंधला गइ ..
दे रही दिल को सुकूं पूरवाइयां ..हम जल रहें है...
(समाप्त)
सौ घर जला कर एक बनाया आशियां
हम जल रहें है उनके घर शहनाइयां , सौ घर जला कर .......
सो गया है ये शहर किस निंद में...
है ये कैसी भागती परछाइयां... हम जल रहें है...
आदमी अब आदमीयत छोडकर ..
कत्ल कर के ले रहा अंगडाइया....हम जल रहें है...
रौशनी की आस भी धुंधला गइ ..
दे रही दिल को सुकूं पूरवाइयां ..हम जल रहें है...
(समाप्त)
No comments:
Post a Comment