Tuesday, May 26, 2009
रात को मैनें मुजरा देखा
बनारस की सुबह ..अवध की शाम के बारे में सुना था । हमारे एक दोस्त ने मुझे बताया कि भाइ उसके साथ अगर आपने सीताराम पुर का मुजरा नही देखा .तो शुरु के दोनों जुमले अधूरें है । हमारे वो अजीज मित्र एक बार मुझे ले गये सीतारामपुर । फिल्मों में मुजरें का सीन देखा करता था । नर्तकी का नाचना ..मसनद लगाकर जमींदार टाइप रइसों का महफील में बैठना ..जाम और पान के साथ वाह वाह कहना आदि दृश्य मेरे दिमाग में नाच रहे थे । जैसे ही शहर में हमने प्रवेश किया ..तबले की थाप और हारमोनियम की आवाज यह इशारा कर रहे थे कि आप निश्चिचित जगह पर पहुंच गये है । हमलोगों ने अंदर प्रवेश किया ...वो उस इलाके की प्रसीद्ध नृत्यांगना या आप जो कह लें ..समाज उसे यह शब्द नही देगा । मोहतरमा ने आदाब कहकर हमलोगों का स्वागत उसी अंदाज में किया जिस तरह की अदा ऐतेहासिक सिरियलों में बादशाहों के लिये कनीज किया करती है । तुरंत बंगाल पुलीस की गाडी वहां आ गइ । मोहतरमा ने १०० रु का कर अदा किया पुलीसवालें वहां से चले गये । बहुत छोटा कमरा था ...मेरे दिमाग में तो पाकिजा वाली हीरोइन मीना कुमारी वाला लंबा सा बरामदा ..पर्दा ..बगैरह बगैरह घूम रहा था । खैर ..तबला वाला बजैया आ गया जो उम्रदराज हो चुका था ..साथ में हारमोनियम मास्टर और बैंजो वाला । मोहतरमा ने डांस शुरु किया । डांस इसलिये कह रहा हूं क्यूंकि अब मुजरे में छाडे रहियें ..और इन्हीं लोगों ने की जगह ...जस्ट चियां चियां ..और ना ना ना नो इंट्री जैसे गानों ने ले रखी थी । डिस्कों और पता नही नये नये जमानें वाले फिल्मी गीतों पर डांस करते हुये प्रत्येक गानों पर २०० रु की छूट भी देनी पड रही थी ...मैने कहा कोइ पुराना फिल्मी गीत गाते तो बेहतर होता ...तबला मास्टर ने कहा कि हूजूर अब पुराने कद्रदान कहा रह गये ..महफिल तो बेनूर सी हो गइ है ..और ये ( यानि नर्तकी ) भी तो नये जमाने वाली है । १० गानें हुये थे और मेरे जेब से २००० रुपये जाया हो चुके थे । हने सोचा इसी महफिल और मुजरे में तो कइ राजवाडे और घराने लूटकर खाक हो गये चलो भागों यहां से और यह मुजरा मेरे जिंदगी का पहला और अंतीम हो गया ।
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13 comments:
chalo achchha hua jaldi nikal liye aap
ये पढ़ शायद हम कभी न जायें.. वरना उत्सुकता बनी थी...
अच्छा है हमें भी बहुत जिज्ञासा थी और हम लखनऊ गये भी थे पर यह शौक हम भी पूरा नहीं कर पाये क्योंकि हमें कोई संगति नहीं मिली और अकेले जा नहीं पाये क्योंकि जगह पता नहीं थी।
good post...
किसी ज़माने में तहजीब और तमीज सीखने के वास्ते बड़े घर के लड़के तवायफों के पास भेजे जाते थे .
भईया हम तो हैं अवध के, और वहां के शाम में रमे हुए और बनारस की सुबह का मजा भी हमने अपनो के साथ मिलकर खूब उठाया है... और एक यही की कमी थी मेरे भी मित्रो के हिसाब से जो आपने आज अपने लेख के माध्यम से पूरी कर दी.....
धन्यवाद्....
मै धीरुसिह जी के विचारो से सहमत हूँ .
फोटो नहीं खिंचवाई?
भाई सच्ची पोस्ट के लिए आभार
सच लिखना अच्छा लगा
बेहतरीन ....पढ़ने के बाद अभी तक हँस रहा हूं....इतनी इमानदारी से अपनी कहानी बताने के लिए साधुवाद....
aapka bahut bahut shukriya itne imandari se koi nahi likhta
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