Thursday, June 27, 2013

लालू-नीतिश-पासवान पुराण ( भाग-१)


शाहनवाज हुसैन ने पटना में एक रैली को संबोधित करते हुये कहा कि नीतिश सत्ता से बाहर रह ही नही सकते । वो हवाला १९९५ का दे रहे थे जब समता पार्टी बिहार में लालू के मुकाबले बुरी तरीके से पीट गइ थी । चुनाव परिणामों के बाद नीतिश ने कहा था कि अब वो राजनीति छोडकर किताब लिखेंगे । फिर कुछ दिनों के बाद ये खबर आइ कि नीतिश बिहार में रहकर ही लालू सरकार के खिलाफ सडक पर संघर्ष करेंगे । बात आइ गइ हुइ बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन हुआ और केंद्र में एनडीए की सरकार बनी । नीतिश कुमार को चूंकि अटल बिहारी बाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था । उन्हें रेल मंत्री के पद से नवाजा गया । बिहार में रहकर संघर्ष करने की बात हवा में रह गइ। नीतिश और लालू के बीच आपसी बैमनस्य इतना था कि रेल डिब्बों मे दूधिया लोग जो लालू की जाति के है नीतिश के आदेश पर उन्हें आरपीएसएफ के द्वारा डंडो से पिटाइ की जाती थी । जातियता की अगर बात करें तो रेल के विभिन्न मलाइदार पदों पर नीतिश ने अपनी जाति के लोगों को चुन चुन कर बिठाया । हां नीतिश को इतना आभास था कि लालू को भविष्य में पछाडा जा सकता है । चूंकि लालू कहा करते थे कि वोट का पैमाना विकास नही है जातिगत समीकरण ही वोट का पैमाना है । इस नब्ज को पकडकर नीतिश ने बिहार में रेल के विकास पर बहुत काम किया । पहली बार जब लालू पशुपालन घोटाले में जेल गये तो बेउर जेल उनके समर्थ उन्हें दूल्हे की तरह बिठाकर जेल के दरवाजे पे ले गये । समर्थक नारे लगा रहे थे कि जेल का फाटक टूटेगा ..लालू यादव छूटेगा । राजनीति में परिवारवाद का मुखाफलत करने वाले लालू को अपनी पार्टी के किसी नेता पर विश्वास नही रहा। जब बातें हवा में चल रही थी कि लालू के जेल जाने के बाद सीएम का पद कौन संभालेगा ..इसपर टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर छपी कि रंजन प्रसाद यादव..जयप्रकाश नारायण यादव या आर के राणा में से किसी को लालू गद्दीशीन करेंगे । अगले दिन जनसत्ता में ये खबर छपी कि अंदरखाने में लालू ने बिहार की कमान अपनी पत्नी को सौंप दी है । इस खबर पर राजद और अन्य दलों के नेता खूब हंसे। अगले दिन विधायक दल की बैठक हुइ..किसी को इसका आभास नही था कि राबडी देवी को नेता चुन लिया जाएगा । हालांकि सब प्री प्लान था ..लालू के सबसे विश्वस्त श्याम रजक ने राबडी के नाम का प्रस्ताव किया ..भला किसमें दम था इसका विरोध करने का । राबडी मुख्यमंत्री बनी और लालू जेलयात्रा पर निकल गये । अब राबडी जो साहब के लिये खैनी मांग कर लाती थी सीएम क्वार्टर के आस पास के लोगों से सीधा बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गइ। अनपढ और सियासत की गलियों से अनजान राबडी के लिये ये एक डरावना मंजर था । साथ ही पार्टी के अंदर ही सीएम पद का ख्वाब देख रहे तमाम नेताओं के विद्रोह का डर । तब राबडी ने अपने दोनों प्यारे सालों के हाथ में बिहार की कमान अघोषित रुप से सौंप दी । एक राजनीतिक अपराधी था तो एक शुद्द गंवार अपराधी । साधु तो राजनीति सीख गये थे लेकिन सुभाष जिसे लगता था कि कमाने का तरीका ..रंगदारी ,,अपहरण और ट्रांसफर ..पोस्टिंग से ही हो सकता है । इतना इन दो सालों ने गदर मचाया कि बिहार की जनता की नजरों मे लालू जो हीरो हुा करते थे ..जीरो की तरफ बढने लगे । मुझे याद है कि सुभाष यादव का कार्यक्रम अगर बिहार के किसी कोने में आपको लेना है तो सुभाष की ये शर्त होती थी कि आने के बाद उन्हें सिक्कों से तौला जाये । ८५ किलों का सुभाष यादव को अगर सिक्कों से तौला गया तो आप उसका दाम निकाल लिजीये । हां एक बात होती थी कि जिस किसी छुटभइये ने युवा हर्दय सम्राट सुभाष यादव का कार्यक्रम ले लिया वह उस एरिया या जिले का डान हो गया । अब वो सारी वसूली अफसर से लेकर दूकानदारों तक की इकढ्ठा करता था और उसमें से अपना शेयर काटकर सुभाष बाबू को पहुंचाया करता था । जनता की नजरों में राजद की सरकार दिन ब दिन गिरती जा रही थी । इधर नीतिश एनडीए में रहकर बतौर रेलमंत्री जो काम कर रहे थे वो लोगों को दिखने लगा । बिहार की जनता को विकास का पहला टेस्ट नीतिश ने रेल में काम करके चखाया । इसके बाबजूद लालू इतने कमजोर नही हुये थे । फरवरी २००५ मे विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश मिला ..नीतिश सरकार बनाने की जुगत लगा रहे थे ..अगर वो जोड तोडकर सरकार उस समय बना लेते तो उनका भी हश्र मदु कोडा सरखा होता । लालू को ये कतइ बर्दाश्त नही था क्यूंकि लालू को उस समय भी यह लग रहा था कि बिहार उनके परिवार की जागिर है । केंद्र में यूपीए के साथ सांठ-गांठ करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लगवा दी । राष्ट्रपति शासन के दौरान बूटा सिंह और उनके दो पुत्रों बंटी और लवली ने मिलकर वही काम किया जो साधु और सुभाष राबडी के लिये किया करते थे ..और यही कारण रहा कि अक्तूबर के चुनाव में जनता ने नीतिश के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की मुहर लगाकर लालू और पासवान को बाहर का रास्ता दिखा दिया ।

 ( जारी है )

Saturday, February 16, 2013

लेफ्ट का आखिरी किला या सरवाइवर ?


त्रिपुरा में विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों का भाग्य इवीएम मशीन में स्टोर्ड हो चुका है । बंगाल और केरल जैसे लेफ्ट रुल्ड स्टेट को कवर करने के बाद त्रिपुरा के राजनीतिक तापमान और मुद्दों को नजदीक से देखने का मौका मिला । शायद उत्तर पूर्व के राज्यों में इतना सभ्य , सुसंस्कृत और सुंदरता को समेटे शायद ही कोइ दूसरा राज्य हो। ६० विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में वामफ्रंट ( सीपीएम, सीपीआइ, आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक ) और कांग्रेसनीत गठबंधन (कांग्रेस, एनपीटी, एनसीटी ) के बीच कडा मुकाबला है । मुद्दों की अगर बात की जाये तो लेफ्ट फ्रंट का दावा है कि उसने राज्य में अशांति और गुंडागर्दी को खत्म कर इस राज्य को ना सिर्फ शांति और अमन की पटरी पर लाया बल्कि विकास का लाभ समाज के निचले पायदान पर खडे लोगों तक पहुंचाया । पिछली बार ६० में से ४९ सीटें जीतनेवाली लेफ्ट फ्रंट का आदिवासी समाज के बीच भी गहरी पकड है । इसका सबूत है कि पिछले चुनाव में एसटी के लिये सुरक्षित २० सीटों में से १९ पर वाम फ्रंट ने अपना कब्जा जमाया था । इसके अलावा केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं को लागू करने में यह राज्य ना सिर्फ नार्थ-इस्ट राज्यों में नंबर वन है बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर भी ये राज्य टाप टेन पर है । हालांकि विपक्ष का मानना है परिवर्तन की हवा  का असर बंगाल के बाद यहां भी महसूस किया जा रहा है । कांग्रेस का कहना है कि राज्य में सिर्फ उसी का विकास हुआ जो सीपीएम के कैडर हैं । आम आदमी वहीं रहा जहां पिछले २० सालों से था । लेफ्ट की ओर से उनके केंद्रीय नेताओं ने राज्य में अपनी पार्टी के पक्ष में जोरदार प्रचार किया । वृंदा करात , सीताराम येचुरी मोहम्मद सलीम सहित मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने अपनी पार्टा के लिये खूब पसीना बहाया । वहीं कांग्रेस की ओर से केंद्रीय मंत्री दीपा दास मुंशी वित्त मंत्री चिदांबरम सहित कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी  अपनी ओर से खूब जोर लगाया । हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का प्रस्तावित दौरा रद्द होने के बाद राज्य कांग्रेस को फजीहत का सामना करना पडा । लेकिन बाद में राहुल गांधी ने ताबडतोड छः जनसभायें करके कांग्रेस के खेमें में उत्साह का संचार कर दिया । राजनीतिक पंडितों का कहना था कि अगर राहुल गांधी नही आते तो कांग्रेस का कबाडा निकल जाता । कांग्रेस के लिये सबसे परेशानी का सबब ये है कि १९८९ में उनकी सरकार यहां रही और राज्य में गुंडागर्दी और आतंक का बोलबाला रहा। इस दाग से कांग्रेसी अभी भी उबर नही पाये है और राज्य कांग्रेस ने सभाओं में कहा है कि अगर इस बार उनकी सरकार बनी तो उस गलती को दोहराया नही जाएगा । इसके अलावा लेफ्ट फ्रंट का एक और संगीन आरोप है कि कांग्रेस का गठबंधन उसी आएनपीटी से है जिसके सर्वेसर्वा बिजय रांकल कभी टीएनबी छापामार दस्ते के हेड हुआ करते थे । वहीं टीएनबी जिसने ८० और ९० के दशक में बंगाली समुदाय और आदिवासी समुदायों के बीच खून की होली खेली थी । हालांकि कांग्रेस का कहना है कि रांकल अब राजनीतिक पार्टी के हेड है और वर्तमान में विधायक भी है ।
राजनीतिक तापमान और भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है इसका फैसला आगामी २८ तारिख को हो जाएगा लेकिन एक बात तय है कि पिछले १९ बरसों से लगातार सत्ता पर काबिज लेफ्ट को गद्दी से उखाडना कांग्रेस के लिये उतना आसान नही होगा । वैसे आम हिंदुस्तान से कटे इस राज्य में आपको भी आना चाहिये । शांति और भयमुक्त वातावरण के साथ अनेकों ऐसे पर्यटक स्थल है जहां आप अपने आपको प्रकृति से काफी करीब पायेंगे ।