रवीश कुमार को जानता था ..एनडीटीवी के बाद उनकी खबरों और रपटों को भी देखने लगा । इलैक्ट्रानिक मीडिया में वैसे भी खबरें कहां होती है ...रावण ने यहीं अपने पांव रखे थे ..सरक गयी चुनरी रैंप पर ..खैर इसमें तह तक जाने की आवश्यकता नही । एक दिन हाफ एन आवर रवीश कुमार का आ रहा था ..मेरे कुछ पत्रकार दोस्त जो मेरे साथ काम करते है ..बोले आलोक देखो यार बहुत अच्छी डाक्यूमेंट्री है ..मैं टीवी से चिपका ...कुछ लोग रविश कुमार के नाम से चिढते थे ..पहले तो उन्होने कहा बंद करो टीवी ..चैनल चेंज करों ..जाहिर था वो सब मेरे मित्र अंग्रेजी जर्नलिस्ट थे ..हमारे यहां आधे आधे घंटे पर हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में बुलेटिन प्रसारित होता है । खैर शुरु में तो उन अंग्रेजीदा पत्रकारों ने विरोध किया ..लेकिन जैसे जैसै कहानी आगे बढी ..सब के सब टीवी से चिपक गये । बात मीडिल क्लास के महानगर के समंदर में खो जाने की थी । एंकर कहता है कि मेरे चाचा ने अपनी बेटी की शादी के लिये गांव में कर्ज लिया था ...बडी जगहंसाइ हुइ थी ..कारें गिने चुने लोगों के पास होती थी ..लेकिन अब आम है । आज मेट्रों में सब कुछ उपलब्ध है ..लोन का पहाड जो आम आदमी के हाथ लग गया है ..हर चीज उपलब्ध है लोन पर ....प्रोग्राम खत्म हुआ ..सब को बडा अच्छा लगा ...उसी रात को सब एक महफिल में जुटे ...दो तीन भारी भरकम पत्रकार भी मौजूद थे ..अब हम सब यही चर्चा करने लगें ..वाह वाह ..क्या हाफ एन आवर था रविश कुमार का ..कोइ लोन वाले प्रसंग का जिक्र करता ...कोइ बजाज स्कूटर पर बैठकर रविश कुमार के जर्नलिस्टिक ऐप्रोच का बखान करता तो कोइ कुछ और भी...महफिल का एक बडा वक्त रविशकुमार के नाम खर्च हो गया ..भारी भरकम में से एक ने कहा ...शायद वो दूसरे की प्रशंशा सुनकर लगभग आपे से बाहर हो चुके थे ... बोले ..शर्म आनी चाहिये ..आप लोगों को .. कुछ करना नही चाहते ..अगर करतें तो रविश कुमार भला किस खेत की मूली है ..हिंदी जर्नलिस्म में आखिर रखा ही क्या है ...हम बोल नही सकते थे ..क्यूंकि कुछ भी बोलना आफत को न्यौता देना था । खैर बाद में हमलोगों ने रविश कुमार दूसरे भी हाफएन आवर प्रोग्राम को देखा करते रहें । कस्बा में भी रविश साहब ऐसा लगता है कि मीडिल क्लास के सच्चे प्रणेता है ....बस एक दिन टीवी पर देखा रविश कुमार ..साला मैं तो साहब वन गया ..ये बात दीगर थी कि साहब बनकर तनें नही थी । कोर्ट ..और टू पीस एंड थ्री-पीस ..विल्कुल इलिट लग रहे थे ..आम नही ..एंकरिंग कर रहे है हो सकता है कि मजबूरी हो लेकिन इस भेष में रविश कुमार मीडिल क्लास के नही अभिजात्य वर्ग के प्रणेता लगते है ।
Monday, October 27, 2008
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14 comments:
मैं टीवी वाले रवीश कुमार को नहीं जानता। टीवी देखता भी नहीं।
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ...
दीवाली आप और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि लाए।
दीवाली का त्योहार ऐसी उमंग लेकर आता है कि क्या गरीब क्या अमीर सभी इसमें डूब जाते है । इसके आगमन के साथ ही उजाले और खुशियों का समेटे हुए लक्ष्मी का आगमन हर दहलीज पर शुरू हो जाता है । पांच दिनो तक चलनेवाला यह महोत्सव हर धर और गली को रौशन कर डालता है । सच मानो तो रिश्तो को नयी जमीन देती है -दीवाली । नही तो शहरी संस्कृति में मिलना-जुलना आपसी-भाईचारा कहां शेष रह गयी है । निडा फाजली कहते है कि पहिये पर चढ़ चुके है ,घिसे जा रहे है हम । यही नज्म शहरी लोगो पर लागू होता है । महानगरो में ईसानी जीवन कुछ इसी तरह आगे बढ़ता है सुवह की पहली किरण के साथ ही काम पर निकलने का सिलसिला शुरू होता है ,दिन भर आंफिसो में काम रने की मारामारी और शाम को घर लौटने की जल्दी । ईंसान महानगरो में इतना मशीनी हो गया है कि उसे अपनो से मिलने का समय नही है । आपसी रिश्तो को निभाना भी कठिन होता जा रहा है । एसएमएस के जरिये ही वह अपने दोस्तो से मिलता है ,रिश्तेदारो से बातचीत करता है और थेक्स लिखकर अपना फजॆ पूरा करता है । लेकिन दीपावली एक एसा उत्सव है जो शहरी जीवन में भी लोगो के बीच खुशियां और चैन के लिए समय दे देता है । धनतेरस से शरू होने वाला यह भैया दूज के दिन जाकर समाप्त होता है । लेकिन शहरो में इतनी जगमगाहट के बावजूद गांवो की दीवाली का आनंद नही आ पाता है । गांव की गलियो में पटाखे छोड़ना और नुक्कड़ो पर दोस्तो के साथ चुहलवाजी करना आज भी याद आता है । पटाखो की सजी दुकानो पर हमलोग अपने मित्रो के साथ घंटो खड़े रहते थे और सोचते रहते थे विचार फैलाते रहते थे कि ये पटाखा इस बार खरीदना है । दीप जलाने के लिए दिये और मोमबत्ती को तैयार लिये बैठे रहते थे कि कब दिये जलाने का वक्त आएगा । उस दिन का याद कर आज भी दिल ख्याली पोलाव उमरने लगता है और गांव की याद तरोताजा हो जाती है । दीवाली आए और हर धर में खुशियां फैलाये यही कामना है ।
रविश कुमार के बारे में आपने जो बातें कही लगता है गले में अटक गयी है । खासकर मिडिल क्लास के गांव से काफी संख्या में लोग आते है । हर के पास करने का अपना कुछ अलग तरीका होता है । रविश भाई भी उसी तरह गांव के देहात से भटकते दिल्ली आ गये थे । पत्रकारिता में हाथ आजमाया ।एक बार जगह मिल गयी तो पत्रकारिता भी चल निकली । समय ऐसा भी आया कि एनडीटीवी में जगह मिल गई । जगह अच्छी मिल जाने पर सोहरत तो मिल ही जाती है । खासकर टेलीविजन पर चेहरा दिखाने से लोकप्रियता भी मिल जाती है । लोग पहचानने लगते है । सुनने में यह भी आता है कि पैसा कमा लेने के बाद लोगो के चाल-चलन और कपड़े भी बदलने लगते है । ऐसा रविश कुमार के साथ भी हुआ । इसमें आश्चयॆ की क्या बात है । अब रविश जी कोट और टाई पहन के आते है लगता नही है कि गांव से उठकर आए है । यही तो किस्मत का खेल है । कुछ समय के बाद लोगो को भूलना भी शुरू कर देगे । तब आपको लगेगा कि ये अभिजात्य नही विदेशी जैसा शक्ल वाला कौन एंकरिग कर रहा है । फिलहाल तो रविश जी भारत से इंडिया की औऱ कदम रख रहे है ।
अगर गांव का कोई नौजवान एंकरिंग करता तो कैसा लगता। क्या गांव का नौजवान कोट-टाई को belong नहीं कर सकता,सज-संवर नहीं सकता। कपड़ों के क्लास का वैसे भी क्या करना। रवीश कुमार की एकंरिंग और इंटरव्यू भी, उनकी सी रिपोर्टिंग का मजा देते हैं।
मैंने रविश जी की रिपोर्ट भी देखी है.. और एंकर वाला रुप भी.. कभी गांव या शहर वाले नजरिये से नहीं देखा.. पर उनकी रिपोर्ट कमाल की होती है.. कभी चैनल नहीं बदलते..
आपके पूरे परिवार और मित्रगण सहित आपको भी परम मंगलमय त्यौहार दीपावलि की बहुत बहुत शुभकामनाएं।
शहरों में ज्यादातर लोग गांवो से ही आते है तो वो शहर में धोती कुरता तो पहन कर घूमेंगे नही वेसे आजकल गांवो का रहन सहन भी शहरों जेसा ही होता जा रहा है | मेने रविश कुमार को टी वी पर तो नही देखा और देखा भी है तो में उन्हें नही पहचानता , हाँ उनके द्वारा दैनिक हिन्दुस्थान में लिखी ब्लॉग वार्ता जरुर पढता हूँ जो वे अच्छी लिखते है |
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ...
ये हमारे यहां की पुरानी बीमारी है। कोई क्या कह रहा है, इसके बजाय यह बताने लगेंगे कि कोई लग कैसा रहा है। जमीन से जुड़े होने का ढिंढोरा सबसे ज्यादा गांव के सामंत पीटते हैं और यह नहीं सोचते कि उस गांव में कोई दलित भी है और स्त्री भी, जो किसी बात पर गर्व नहीं कर सकते। सारहीन गवंईपन की आड़ में हमारे कई नामवर कवि-आलोचक रघुवीर सहाय को भी कैसे-कैसे देखने की कोशिश करते थे। अब इसे रवीश का गुणगान न समझना, अपना उससे दूर तक कोई मतलब-वास्ता नहीं।बस चीजों को इस तरह देखने काअंदाज ठीक नहीं लगा। वैसे रवीश की कई अच्छीरपट देखी हैं।
ravish tv media me tamam logo se behatae hai jo kabhi gavn gaye hi nahi.fir samajik sarokar ki bat bhi karte hai.tv me jo mahan log hai ve kya jameen ke aadmi lagte hai.dalal patrkarita ke bahut udaharan hai bahash ke liye.
रवीश कुमार को व्यक्तिगत रूप से मैं नहीं जानता लेकिन जिन रवीशकुमार को मैं जानता हूं उनके लेखन से और रिपोर्टिंग से उससे वे मुझे एक संवेदनशील व्यक्ति लगते हैं। भीड़ से अलग!
aap ka blog dekha or padha bhi
aise hi likhte rahiye.
shubhkamnaye
Safi Ara
main anoop ji ke sath hun..
Ravish जी मेरी ही तरह गाँव के से निकले हुए है.. जो इंसान गाँव से जुरा हुआ होगा वोह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ होगा....यही ravish के साथ भी है..
किसी के सूट और taai पर sawal न खरा करे...हम भी गाँव से आए है, अगर ऐसा है तो हमको भी सूट pahanane से pahle दो बार सोचना padegaa ...
रविशजी का प्रोग्राम स्पेशल रिपोर्ट मेरे स्पेशल पंसदीदा प्रोग्राम्स् में से एक है..... और जहां तक सवाल है उनके प्रोग्राम का तो वो बहूत ही उम्दा और जानकारी भरा होता है...
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